कैसा अपशकुन ? विचारार्थ कहानी ।

                      कैसा अपशगुन ?


 


“वो ही है महाराज जी की कुटी बहन…”, ड्राईवर ने बस की रफ़्तार धीमी करते हुए उन्हें बाईं ओर की पगडंडियों की तरफ संकेत करते हुए बताया. 


“कुटी क्या अच्छा खासा आश्रम कहो बाबा जी का…”, ड्राईवर के पीछे की सीट पर बैठे एक यात्री ने अपना ज्ञान बघारा और श्रद्धा में अपना सर झुकाया.  


कंडक्टर की सीटी बजी और सुरेंद्री अपना थैला, लगभग सात साल के बच्चे अनंत और अपने देवर राजेश को उतारने के बाद आगे बढ़ गई. उसके पैरों में हवाई चप्पल थी, एक कॉटन की साड़ी, और ब्लाउज के नाम पर पुरुषों वाली पूरी बांह की सफ़ेद रंग की कमीज़, जो धुली होने के बावजूद भी पुरानेपन का आभास दे रही थी.  


पगडण्डीनुमा जरूर था वह रास्ता, पर इतनी जगह थी वहां कि कच्चा रास्ता होने के बावजूद दो बड़ी गाड़ियां भी उस रास्ते पर आसानी से जा सकती थीं. मुख्य मार्ग से लगभग दो फर्लांग पर था स्वामी जी का “मोक्ष आश्रम”.


दिल्ली से सहारनपुर या रूडकी तक यूँ तो स्टेट हाईवे है, और अभी उसको और चौड़ा किया गया है, लेकिन उसमें कई पैचेज ऐसे हैं जैसे कि गाँव का कच्चा रास्ता हो. बहुत दुरूह लगता है ऊबड़-खाबड़ रास्ते का सफर. बडौत कस्बे से दूरी तो होगी १७० किलोमीटर ही, पर जगह-जगह बस बदलने की यह यात्रा असीमित समय ले लेती है. 


दारुल उलूम वाले विश्वविख्यात देवबंद कस्बे में उतरकर फिर रुड़की जाने वाली सड़क पर सादतपुर गाँव के जंगलों में स्थित था ज्ञानी पुरुष सिद्धि प्राप्त महात्मा जी का यह आश्रम. आज उनसे मिलने का सौभाग्य प्राप्त होना था सुरेंदरी को. ऐसे में रास्ता अच्छा हो या खराब, बेमानी है. हो सकता है कि आज उसके दुखों का अंतिम दिन हो, और ऐसा निवारण हो कि जो कष्ट उसने पिछले साल साल में झेलें हैं, सब मिट जाएँ और वह भी राज करे… अपने घर पर, अपने पति के दिल पर, और सुख ही सुख हों, उसकी इस जिदगी में. 


नहीं, वह किसी सामान्य पारिवारिक समस्या की शिकार नहीं थी. उसकी समस्या थोडा जटिल थी, और आश्रम में स्वामी जी के पास ही निदान की संभावनाएं मिल सकती थी उसे. यूँ तो वह आश्रम मुख्य मार्ग से दिखता था, पर था थोडा दूर. आखिरकार मुख्य मार्ग से दो फर्लांग का पैदल का रास्ता पूरा हुआ, और सुरेंदरी ने आश्रम की ड्योढ़ी पर प्रवेश किया. दूर से ही दिखना आरंभ हो गया था कि वह कोई ऐसी कुटी नहीं थी, जैसी झोंपडीनुमा संरचना की हम कल्पना करते हैं, जिसमें कोई जटाधारी साधू  धूनी रमाये बैठे हों. आस-पास कुछ शिष्य उनके साथ हों और हो कुछ सामान… कुछ कांसे और लकड़ी के बर्तन, पानी के लिए मिट्टी का घडा और कुछ फल रखे हों. खुद बैठे हों लकड़ी के तख्त पर.


विशाल परिसर था वह सुरेंदरी के हिसाब से. बीघों में फैला होगा. पिछले सात सालों से वह न जाने कहाँ-कहाँ भटकी थी… न जाने किस-किस से अपनी फ़रियाद की थी, घर-परिवार के साथ जमीन से जुडी कितनी समस्याओं को अकेले अंजाम तक पहुँचाया होगा,  कैसे एक-एक रुपया जोड़कर अपने तीन बच्चों-- दो लड़कों और एक लड़की को पढ़ाने की जुगत की…, तब उसे गाँव का अपना दो कमरों का हिस्सा भी पर्याप्त लगता था, जिस पर अभी भी उसके भाई-भतीजों और ससुर तक की भी निगाह थी. 


कोई नहीं चाहता था कि वह रहे यहाँ पर. पर वह जाए कहाँ ? कितने लालची, कृपण और निर्दयी हो जाते हैं अपने ही लोग. यदि उनका विवाहित बेटा एक दिन अचानक गायब हो जाता है, तो वह उसे ढूँढने के बजाय उसकी पत्नी को कोई मदद देना तो दूर, उसके न्यायपूर्ण हिस्से से भी वंचित करने का षड्यंत्र करने लगते हैं… यह कौन सी सोच है. किस धर्म और शास्त्र में ऐसा कहा गया है. और इस अधर्म का भुगतना किसे पड़ेगा… !


वे आश्रम में प्रविष्ट हो चुके थे. लाल पत्थरों की चाहरदीवारी पर लोहे का बड़ा गेट था, जिस पर दो बंदूकधारी गार्ड एक-एक कर लोगों को प्रवेश करा रहे थे और निकलने का रास्ता दे रहे थे.  अंदर संगमरमर का एक विशाल हाल था. साथ में कई कक्ष बने थे, फुलवारी लगी थी और विशाल लॉन भी था. एक ओर बड़ी किचेन थी और दूसरी ओर बताते हैं कि स्वामी जी का शयन और पूजा कक्ष था. उसकी भव्यता का अनुमान बाहर लगे नक्काशीदार पत्थरों और स्टील के डिज़ाइनर प्रवेश द्वार से ही हो जाता था. 


उन लोगों को वरांडे में रखे मूढों पर बैठने को कहा गया, हालांकि अभी दो मूढे ही  खाली हुए थे. लगभग बीस-बाईस लोग प्रतीक्षा में बैठे थे, या मंडरा रहे थे. कुछ आलीशान गाड़ियों से फलों, मिठाइयों और नाना प्रकार की वस्तुओं के पैकेट लेकर आ-जा रहे थे. कुछ सीधे अंदर प्रवेश कर जाते, कुछ को बुलावा आ जाता. पर, उनको और उनके जैसे कुछ और श्रद्धालुओं को प्रतीक्षा करने को कहा गया. परिसर में भंडारा चल रहा था. तरह-तरह के पकवान पत्तलों पर परोसे जा रहे थे. देशी घी में तले व्यंजनों की खुशबुएँ  फ़ैल रही थी, पर सुरेंदरी को वास्तव में भूख नहीं थी. अनंत को उसने रास्ते में भी दो पूड़ियाँ और सब्जी खिला दी थी, अब उसे फिर से भूख लगी, तो बैग से निकालकर दो पूड़ियाँ और आलू की सब्जी उसे और दे दी थी.


कुछ लोग भगवा वस्त्र में और कुछ श्वेत परिधानों में परिसर में घूम रहे थे, दूर कहीं से पूजा सामग्री के ज्वलन की महक भी नथुनों में प्रविष्ट कर रही थी. उनको बैठे-बैठे लगभग डेढ़ घंटे हो चले थे, पर गुरु जी का बुलावा अभी भी नहीं आया था. 


बेचैन सुरेंदरी ने गेट पर खड़े गार्ड से गुरु जी से मिलने के बारे में जानकारी ली. पर उसकी क्लिष्ट भाषा से कुछ भी समझ नहीं आया कि महाराज से कैसे भेंट होगी. वह ठहरी निपट गंवार. सीधे खेत का काम निपटाकर और जानवरों के दोपहर तक के चारे का इंतज़ाम कर के आई थी वह. उसके दिमाग मे तो फिर से वही दृश्य घूम रहा था कि उसकी दोनों गाय, चार भैंस और पांच बछड़े भूख से व्याकुल होंगे.


एक भगवा परिधान वाले युवा से बात की उसने, जो परिसर में ध्यान मग्न टहल रहा था. उसने रुक कर गौर से सुना और सौम्यता से कहा,


“देवी, आपको क्या कष्ट है...बताएं. गुरु जी से मिलने की प्रक्रिया निर्धारित है. आपको उसका पालन करना पड़ेगा. जितना हो सकेगा मैं आपकी मदद अवश्य करूंगा”. 


“भाई  तू मझै गुरु जी तै अलग तै मिलवा दे…. भगवान भला करेगा तेरा. मेरी दिक्कत तो वो ही दूर कर सकै...”, सुरेंदरी ने कहा. 


वह सेवक अंदर चला गया. लगभग दस मिनट बाद आया तो बोला, “ आप चलिए मेरे साथ…. लेकिन अकेले ही. और किसी को इजाजत नहीं है”. 


“पर इस बालक कू केल्ला कुक्कर छोड़ दूं...चलण दे इसै बी…”, थोड़ी दृढ़ता से कहा सुरेंदरी ने.


कुछ ना-नुकुर के बाद अंततः सेवक राजी हो गया. बच्चा अनंत और मां सुरेंदरी सेवक के पीछे-पीछे चले. उस गेट के भीतर से पीछे जंगल का रास्ता था. थोड़ी दूर पर  वहां भी एक अच्छा-खासा हाल बना था. उस हाल में कई लोगों के समूह ध्यानमग्न मुद्राओं में मद्दिम संगीत के मध्य विशिष्ट ध्यान मुद्राओं में लीन थे. अलग से रास्ता बनाते हुए वह लोग भीतर के एक बड़े कमरे में प्रविष्ट हुए. वहां पहले से ही कई लोग बैठे थे. गहन चुप्पी थी वातावरण में. इंसानों की मौजूदगी के बावजूद मौत-सी ख़ामोशी! कमरे में प्रकाश बहुत कम था. एक तो कम रोशनी दूसरे उसकी कम होती आँखों की दृष्टि-- सुरेंदरी को दूर से कुछ समझ नहीं आया. उसने किनारे से जगह बनाकर अनंत का हाथ पकड़े-पकड़े आगे जाने की युक्ति लगाई, ताकि वह स्वामी जी के निकट पहुँच सके. अंततः वह सफल हो गई. वह ध्यानमग्न गुरु जी के थी सामने थी अब. 


निकट पहुँचते ही सुरेंदरी को लगा कि उसकी धडकनें काम करना बंद कर देंगी. धरती और आकाश एक होते दिखाई दिए. आँखों के सामने कभी हज़ार वाट के बल्ब और कभी गहन अँधेरे बियाबान रास्ते दिखते. उसे समझ ही नहीं आया कि यह क्या हुआ उसे. कहीं स्वप्न तो नहीं देख रही वह. पर, नहीं… स्वप्न नहीं था यह. साक्षात महेंद्र प्रताप सिंह उसके सामने था… सिद्ध बाबा, गुरु जी, स्वामी जी, और भभूत वाले बाबा जी, जो भी था वह महेंद्र ही था. सात साल हुए थे उसे गायब हुए, और वह यहाँ ध्यान मग्न बैठा था. यह क्या किसी चमत्कार से कम था. धक्का भी लगा उसे… पर दूसरी ओर ख़ुशी भी. वह निहारती रही महेंद्र को…. उसी महेंद्र को, जिसके साथ उसने सात फेरे लिए थे. जिसने जीने-मरने की कसमें खाई थी उसके साथ. जो उस समय लगता था वास्तव में प्यार करता था उसे… क्रोध भी आ रहा था उसे. कैसा इंसान है जो गुमनामी में छोड़ गया उसे अकेले जूझने के लिए. तीन बच्चों को पालना… बिना किसी की मदद के, आसान है क्या! ऐसा इंसान क्या कोई सिद्ध पुरुष हो सकता है.


लगभग दस मिनट बाद आँखें खोली महेंद्र ने. हाँ, वह अब गुरु जी नहीं, न कोई सिद्ध महात्मा था. वह मात्र महेंद्र ही तो था सुरेंदरी के लिए.  शरीर थोडा कमजोर दिखता था. बावजूद वैभव के. शरीर पर श्वेत वस्त्र का परिधान जो धोती की तरह मात्र निचले हिस्से को ढके हुए था. बाल खिचड़ी हो गये थे. दाढ़ी के बाल भी सर के बाल जितने बढे हुए थे, घनी बेतरतीब मूंछें, और उस सब के बीच दो आँखें, और चेहरे के भाव… वह भला छिपते हैं क्या. 


सुरेंदरी के बैठने की जगह ऐसी थी कि आरामदेह चांदी-जडित सिंहासन पर बैठा महेंद्र चाह कर भी उसे अनदेखा नहीं कर सकता था. साफ़ था कि उसने सुरेंदरी की आँखों में झाँक लिया था. एक बारगी उसने फिर से आँखें बंद की. हाँ, वह कुछ परेशान तो दिख रहा था. न केवल खुद बल्कि उसकी बंद आँखों की पुतलियां भी विचलित प्रतीत हो रही थी. स्पष्टतः उसने सुरेंदरी को पहचान लिया था. 


कोई भूल भी कैसे सकता है. विवाह होना, और तीन बच्चों का पिता होकर दिन-रात का साथ होना. गंध भी जानी पहचानी लगती है उन दोनों को अपनी, और क़दमों की आहट भी, फिर यह तो सशरीर उपस्थिति थी उन दो आत्माओं की जो न जाने कितने वसंत और कितनी शीत ऋतुओं में दो जिस्म-एक जान बन कर साथ रहे थे. 


अचानक महेंद्र ने अपने सेवकों को कुछ संकेत किया और अपने स्थान से उठ खड़ा हुआ. सेवकों ने आसपास घेरा बना लिया, और वह पीछे के दरवाजे से चला गया. भक्तों ने उसके पैरों की धूलि को माथे पर लगया और वापिस लौटने लगे. पर, सुरेंदरी खडी रही. एक सेवक से बोला उसने कि वह बिना मिले नहीं जायेगी.


“पर… यह असंभव है… गुरु जी अब धूनी रमाने में व्यस्त हैं. इस समय वह कोई व्यवधान नहीं चाहते. आप कल आयें…”, उसने दृढ़ता से कहा.


“अरै… तू बोल उसतै...घर तै  हूँ मैं उसके… क्यूँ नी मिलेगा वो...होगा बड़ा महात्मा...सब  पता मझै….मेरे धोरे ई तो रहा वो इब लो… इब सांग भर रा…”, 


सुरेंदरी की आवाज में वर्षों का छिपा आक्रोश उभरकर सामने आने लगा तो लोग इकट्ठा होने लगे. दो सेवक उसे मुख्य हाल की तरफ ले जाने का प्रयास करने लगे. तब वह बिफर पड़ी. बोली,


“मैं औरत हूँ उसकी…. खबरदार, जो मझै हाथ लगाया”.


सन्नाटा छा गया. खुसपुसाहटें होने लगी, कुछ और सेवक आ गये, कुछ भक्तगण भी बातों में रुचि लेने लगे. तभी पीछे के दरवाजे से बुलावा आया. दो सेवक साथ लेने आये उसे. गुरु जी ने उसी स्थल पर बुलाया था जहाँ वह धूनि रमाये हवन कर भभूत देते थे.


लगभग ढाई सौ मीटर दूर, जंगल में एक सज्जित कुटिया में धूनी रमाये बैठे थे श्रीमान महेंद्र गुरु जी. कक्ष में वह अकेले थे. श्रद्धालु बाहर प्रतीक्षारत थे. केवल सुरेंदरी और उसके पुत्र को अंदर जाने की अनुमति मिली थी.


सुरेंदरी ने देखा कि वह आँख बंद कर एक ख़ास मुद्रा में धीमी आंच वाले कुंड के पास बैठा है. एक सेवक ने उसे रास्ता दिखाया. वह बालक का हाथ पकड़े उसके निकट तक गई. वहां गुरु जी खुद एक चौडी चौकी पर विराजमान थे और तीनों ओर लकड़ी की साधारण पटरियां रखी थी. वह बच्चे को लेकर उनके बगल वाली पटरी पर बैठ गई. कुछ ही क्षणों में गुरु जी महाराज की आँखें खुली. वह हडबडा गये. बोले,


“देवी… यहाँ नहीं, सामने बैठो...थोडा दूर… हाँ हाँ, उस तरफ”, उन्होंने संकेत करते हुए बोला.


“दूर…? कितनी दूर... सात बरस तक दूर रह कै मन नीं भरा तेरा...”. सुरेंदरी ने अप्रत्याशित रूप से अपने मन का गुबार निकालना शुरू किया.


“देवी… आप व्यर्थ की वार्तालाप में समय नष्ट न करें… बताएं कैसे आना हुआ…”, कहते हुए महेंद्र उर्फ़ गुरूजी ने पास रखे फलों में से बालक के हाथ में एक सेव पकड़ा दिया.


“सुण बाब्बा … देवी कहिये अपनी मां कू… जिन्नै तझै जणा. मैं तो तेरे करम देक्खे...अर खूब देक्खे.  अर गुरु जी होगा तू इन बेकूफों  का… मझै तो नूं पता अक तू भगोड़ा है. तू ऐसा इंसान है जो अपणी ब्याहता औरत को राक्षसों के बीच में बिना किसी सहारे के केल्ला छोड़कै भाग ग्या. तझै पता तेरे पीच्छै के बीती मेरे पै. तझै क्यूँ  पता होगा  अक कुक्कर-कुक्कर पाला मैंने तीनूं बालकू कूं… तू तो यहाँ धूनी रमाऊ बैटठा. थोडा सा बी ख्याल नी आया इनका... सारी सरम बेच कै खा ग्या तू.  तझै तो नरक मैं बी ठिकाना  नी मिलने का… देखता रहिये के फल मिलेगा तझै इसका ! अर इस बालक कू ना चाहता तेरा यू सेव. इब लो तेरे इस सेव के बिना ई पाला इसैे मैं…”, कहते-कहते सुरेंदरी क्रोध से कांपने लगी.


“शांत देवी….ऐसे क्रोध नहीं करते...सब ठीक होगा..”, ऐसे बोला महेंद्र जैसे कुछ हुआ ही न हो.


“शांत तो मैं हूँ ही….नहीं तो काम तो तैं जूते खाण के कर रखे….मझै तो तैं विधवा छोड्डा ना सुहागण…”, बोली सुरेंदरी.


“अब यह तो भाग्य में लिखा था… मुझे ईश्वर ने जिस काम को सौंपा वही तो कर रहा हूँ…”, उसी निश्चिंतता से कहा महेंद्र ने.


इस बार सुरेंदरी ने अपने क्रोध को संयत किया. बोली, 


“...अच्छा एक बात बता… तैं को कधी सोचा अक हम किस हालत मैं होंगे. कोण सी जायदाद छोड़ ग्या तू.. जमीन कूबी तेरे भाई दबाऊ बैटठे कम तै कम बंटवारा ई करवा के चला गया होत्त्ता. उस के सहारे ई  बालक पाल लिए होते. मझै ई पता अक लौंड्डी का ब्याह कुक्कर-कुक्कर करा मैं. भैंस कू बी अपणे लवारु तै मोह हो. उनके बिछड़ने पै रोते रहैं. उन्हैं मुसीबत तै बचाण की पूरी कोसिस करें…अर तैं के करा उनकी लिया...बिना बाप के बणकै रहगे.वे पता है तझै यू बालक कितने दिन का था जिब तू चुपचापल लिकड़ लिया गौतम बुद्ध बणन…? ना... तझै क्यूँ पता  होगा… तू तो यहाँ  ऐस कर रहा . यू तो कुल २८-दिन का हुया था उस दिन अर वो हिसाब सब लिखा  धरा …. किसी बही खाते में नी…. इस भेज्जे में . बुद्धि कितनी ही ठस हो, पर तेरी बेवफाई का पूरा हिसाब दरज है इसमें.”


बाबा महेंद्र ने अपनी आँखें बंद कर ली. न जाने पश्चाताप का मनन कर रहा था, या उसके आने पर उत्पन्न क्रोध की अग्नि को शांत करने की कोशिश कर रहा था. 


“इसतै चोक्खा तू मर ई जाता, उसतै  मझै तसल्ली तो हो जात्ती अक तू इस दुनिया मैं नी  रहा. अपणे कू  धोक्खा दे कै, मेरी अर इन बालकू की बद्दुआ  लेकै, इन दुखियारे लोग्गू कू झूठ बोलकै... यू जो नाटक रच  रक्खया  तैं... इसै कुक्कर माफ़ करेगा भगवान , नूं बता तू मझै?”, सुरेंदरी ने फिर से उसकी बंद आँखों में प्रश्न दाग दिए. 


“यू ही सब करना था तो शादी क्यूँ करी  तैं मेरे तै? बता तो सई… मेरी जिन्दगी बर्बाद कर कै के मिल्या तझै? बहोत खुस  है ना तू म्हारे बारे मे कधी पता लगाण की बी कोसिस करी तैं अक हम ठीक बी हैं या नहीं? के मिला तझै यू सब करकै. भगवा बाणा अर ये चेल्ले, सब ढोंग है. भगवान अपने परिवार कू पालने तै खुस हो...इस ढोंग तै नी”, ज्ञान देते हुए बोली सुरेंदरी. 


महेंद्र चुप. उसका धर्म, मोक्ष और आध्यात्म का ज्ञान एक अदना-सी स्त्री के सामने बौना पड़ता दिख रहा था. आँखें खोल ली थी उसने अब. कहने को उसने जवाब देने का यत्न भी किया, पर वह उससे नज़रें मिलाने का साहस नहीं जुटा पा रहा था. 


अंततः सुरेंदरी उठ खड़ी हुई, तब महेंद्र ने संकेत से उसे पास  बुलाया. वह गई तो उसने भभूत  की एक पुड़िया उसे थमा दी, बोला, 


“सब कष्ट दूर होंगे तुम्हारे देवी!”


सुरेंदरी के सीने की ज्वाला चरम पर पहुंच गई थी. उसने वह भभूत उसी हवन कुंड में फेंक दी, जिससे उठाई गई थी. बोली, “मझै ना चाहती तेरी या राख की पुडिया… मझै तो बस उन याणे बालकूं की फिकर है, जो तेरी बी उलाद है. यह ढोंग तू ही करता रै !”. 


“ऐसा नहीं करते देवी… भभूत का फेंकना अपशकुन होता है”, निरपेक्ष भाव से कहा महेंद्र ने. पर सुरेंदरी ने मुड़ कर नहीं देखा.
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बिना किसी उम्मीद के, हताश होकर लौट आई  सुरेंदरी. पन्द्रह साल होने को आये इस घटना को. सऊदी अरब में एयरकंडीशनर इंजीनियर था महेंद्र. उस सस्ते समय में लाखों रूपये कमा कर लाता था हर साल. संयुक्त परिवार बहुत खुशहाल था. गांव में वैसे ही चौधराहट थी. उसके विदेश में होने से इज्ज़त और बढ़ गई थी. हर साल खेती की जमीन में बढ़ोत्तरी हो रही थी. लोग 'घर' बनाते हैं…;पर वह 'मकान' बनाता गया… या कहें हवेली. वह अब उसके जाने के बाद धीरे-धीरे खंडहर-सी हो गई थी क्यूंकि अधिकतर हिस्सा उसके भाइयों के कब्जे में था और वह इतने सम्पन्न नहीं रह गये थे कि उन हिस्सों की सही से देखभाल भी कर सकते… टूटफूट  और मरम्मत आदि. 


जब साथ था वह, तब सुरेंदरी को शायद ही अलग से कुछ पैसा दिया हो उसने. कहता था, यह तो शादी होकर आई है, दूसरे घर से. हमारा... मां-बाप और भाई-बहनों का प्रेम कैसे समझ सकती है. और सुरेंदरी…? उसे कुछ बुरा नहीं लगता… खुशहाल, हंसता-खेलता परिवार, आंगन में किलकारी मारते बच्चे… बस यहीं तक सीमित थी उसकी जिन्दगी. बाकी था न वो… और भरा पूरा परिवार, संभालने के लिए. 


पर कहते हैं न… कि वक्त का कुछ भरोसा नहीं होता. किसी का सगा नहीं होता वह. नहीं इतराना चाहिए वक्त पर. सब कुछ क्षणिक होता है. न जाने उसके साथ यह सब क्यूँ होना था. पर… वास्तविकता तो यही है, और पिछले सात सालों से जूझ रही है वो. हर रोज़, हर पल… तिल-तिल जिन्दगी. अपनी चिंता उतनी नहीं, जितनी तीनों बच्चों की. उनका क्या कसूर था. यह तो पता चले. और मैंने ही क्या किया ऐसा… पूरे मन से समर्पण ही न ? क्या यही दोष है मेरा…, वह सोचती.


कभी कोसती उस घड़ी को जब आख़िरी बार महेंद्र लौटा था सऊदी से. उस समय कुछ परेशान-सा तो था, पर कभी कुछ कहा भी नहीं उसने. न ज्यादा पूछा था सुरेंद्री ने. कभी पूछा भी तो बोलता कि 'तू ना समझ पावेगी'. अब इतना तो कोई भी समझ सके कि घर छोड़कर साधू बनना और बच्चों को बिना किसी सहारे के पालना--- दोनों में से सरल काम कौन है. क्या मुझे सांसारिक जिम्मेदारियों का बेहतर निर्वहन करने से मोक्ष मिलेगा या, महेंद्र को उस ढोंग को रचने, और घर-बार से पलायन करने पर. 


सच में वितृष्णा होती, मन खिन्न हो जाता, कुछ भी अच्छा न लगता, पर हर रोज़ फिर से नई ऊर्जा से जुटना पड़ता उसे. कभी भी शायद ही हुआ हो कि भोर की किरणें उसके लिए कोई नव सन्देश लेकर आई हों.., वह क्षितिज जो लोगों के लिए नई किरणों का खूबसूरत सवेरा होता है, उसके लिए तो वह होता था एक आम दिन… जिजीविषा का.  और फिर से  एक ही खट-पट. घर, गाय-भैंस के लिए चारा… फिर खेतों में फसल की चिंता, बच्चों की पढाई और उनकी देखभाल. स्त्रियों की कोमल अनुभूतियाँ नहीं मायने रखती उसके लिए. या फिर सारी व्यवहारिकता और दुनियादारी स्त्री के हिस्से में आई है.


कई बार दया भी आती… कि न जाने कौन सी विपदा में होगा महेंद्र. आखिर उसने भी तो अग्नि के समक्ष फेरे लेकर प्रतिज्ञा की थी सुख-दुःख में साथ निभाने की. यदि वह किसी दुःख में है तो उसका धर्म बनता है न हर तरह से साथ देने का. कहाँ-कहाँ नहीं खटखटाया उसने. पुलिस? वो तो खानापूर्ति ही करते हैं…  पर उनके भी अनगिनत चक्कर काटे सुरेंदरी ने. निपट अकेले. कभी गोदी में बच्चे को लेकर. 


एक दिन गाँव का परचून की दूकान वाला  जब दो साधुओं को लेकर घर आया था, जिनको महेंद्र का पता था तो उसे एक अद्भुत और चमत्कार सा प्रतीत हुआ. कांवड़ यात्रा पर निकले वो साधू उसी आश्रम के थे, जिसको महेंद्र संचालित करता था. न जाने किस झोंक में उसने कभी अपने गाँव का जिक्र किया होगा. वो गुजरते हुए इधर आ पहुंचे उस साल, तब सुरेंदरी ने  खूब आव भगत की थी उनकी. सब जाना. पर ससुर और भाईयों ने कोई रुचि नहीं ली उसे ढूंढ कर लाने में. बोले, 'क्या पता वही है, या कोई और'. या, 'क्या करेंगे उसका जो साधू हो गया… कोई तंत्र-मंत्र ना कर दे'. 


पर, स्त्री का मन कैसे माने. वह सपने भाई के घर गई. भाई को राजी किया किसी तरह से चलने के लिए, उसमें भी भाभी रास्ता रोक कर खड़ी हो गई. बोली, 'यह नहीं जायेंगे… क्या पता साधुओं ने मार दिया मेरे आदमी को, तो मेरा क्या होगा..'. यहाँ भी रास्ता बंद! बहनोई के पास गई, कि अपने बड़े बेटे को भेज दो साथ. वह बोले, 'वह बाहर है. पता नहीं कब आयेगा. मैं खुद चलूँगा...चलो'. लेकिन बहनोई के साथ जाना, अकेले, और गैर टाइम में, ऐसी परिस्थितियों में...भले ही उम्रदराज़ हों दोनों, पर वह क्या कम अक्षम्य अपराध है एक स्त्री के लिए. अंततः बहन का देवर साथ गया. और बाकी किस्से तो जगजाहिर ही हैं .


आज लगभग दो दशक बीत गये हैं इस घटनाक्रम को. महेंद्र का दरबार फल-फूल रहा है. आश्रम में भक्तों का आवागमन बढ़ता जा रहा है. पैदल...साईकिल.. रिक्शा और मोटरसाइकिल से लेकर मारुती-८०० तक में आने वाले श्रद्धालुओं की भीड़ अब स्कार्पियो, फॉरचुनर, ऑडी और बी एम डब्लू में आने वाले भक्तों तक पहुँच गई है. आश्रम एक किले का रूप ले चुका है.  और सुरेंदरी…?


सुरेंदरी ने इसी बीच बड़ी बेटी की शादी कर दी थी. पर वह पति घोर शराबी निकला. दिल्ली की किसी फैक्ट्री में दस घंटे की सिलाई की ड्यूटी कर बारह हज़ार रूपये पाती है, तब दो बच्चों का पेट पालती है. जितना हो सकता है, सुरेंदरी भी मदद करती है.  बड़ा बेटा खेती करता है, उस जमीन पर जिस पर उसका कानूनी हक है, पर न जाने कितनी पुलिसिया और अदालती कार्रवाही के बाद मिली है वह भी उसे. एक छोटी डेरी भी बना रखी है उसने, जिससे अब अच्छी-खासी आमदनी हो जाती है. छोटा बेटा पढता है ग्यारहवीं में. वह कुशाग्र बुद्धि है. नफरत है उसे अपने पिता से. सुरेंदरी अभी भी बीच-बीच में जाती है आश्रम पर, बड़े बेटे के साथ. न जाने किस उम्मीद में! या फिर अपनी भडास निकालने के लिए. पर वो बच्चा जो अपने बाप के गायब होने के समय अट्ठाईस दिन का था, फिर कभी नहीं गया आश्रम पर. न कोई इरादा है उसका वहां जाने का! कभी कोई आर्थिक या अन्य मदद नहीं मांगी उसने, न कभी महेंद्र ने दी उसे. जो तरक्की की सुरेंदरी ने सिर्फ अपने बूते पर और संघर्ष से, तरक्की क्या भौतिक सुविधाएं जुटा पाई वह...बेहतर मकान, बच्चों की शिक्षा और अच्छा रहन-सहन. पर, पति का साया, और बच्चों पर पिता की छाया… उसका क्या? 


आज फिर सुरेंदरी ने भभूत फेंक दी, फिर महेंद्र ने समझाया, 


“ऐसा नहीं करते देवी...भभूत का फेंकना अपशकुन होता है!”.


क्या महेंद्र की दी हुई भभूत से मन के मैल धुल सकते हैं ? वह हर बार उसे 'सिद्ध भभूत' देने की कोशिश करता है, और सुरेंदरी उसी शिद्दत से भभूत को वहीँ फेंक कर चली आती है ! न जाने क्यूँ जाती है अब भी कभी-कभी वो, और फिर क्यूँ फेंक आती है वह भभूत वहीँ ? 


स्त्री, और वो भी विवाहिता स्त्री… अपना मन सिर्फ वही जान सकती है. पुरुष उस स्तर को स्पर्श भी नहीं कर सकता ! धर्म, परम्पराएं और सामाजिक कुरीतियों के नाम से जुड़े ढकोसले… यह सब कर्म और सच्चरित्र का स्थान कभी ले सकते हैं भला ! जीवन से पलायन की राह जितनी सरल है, जिजीविषा उतनी ही कठिन. कोई कठोर आवरण का बना होता है, पर सरल रास्ते पर चलता है, और कोई अपनी कोमल भावनाओं से बेपरवाह संघर्षरत होकर परिवार और बच्चों की ढाल बनकर सच्चे अर्थों में जिंदगी जी जाता है.  देखिएगा आपके आसपास भी न हो कोई महेंद्र… या सुरेंदरी !
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राजगोपाल सिंह वर्मा
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पत्रकारिता तथा इतिहास में स्नातकोत्तर शिक्षा. केंद्र एवं उत्तर प्रदेश सरकार में विभिन्न मंत्रालयों में प्रकाशन, प्रचार और जनसंपर्क के क्षेत्र में जिम्मेदार पदों पर कार्य करने का अनुभव.
 
पांच वर्ष तक प्रदेश सरकार की साहित्यिक पत्रिका “उत्तर प्रदेश “ का स्वतंत्र सम्पादन. इससे पूर्व उद्योग मंत्रालय तथा स्वास्थ्य मंत्रालय, भारत सरकार में भी सम्पादन का अनुभव.
 
विभिन्न राष्ट्रीय समाचारपत्रों, पत्रिकाओं, आकाशवाणी और डिजिटल मीडिया में हिंदी और अंग्रेजी भाषा में लेखन और प्रकाशन तथा सम्पादन का  बृहद अनुभव.  कविता, कहानी तथा ऐतिहासिक व अन्य विविध विषयों पर लेखन.
 
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