एक बोझ कहानी



अस्पताल के कॉरिडोर में स्ट्रेचर पर विवेक कराह रहा था।  डॉक्टर से उसके जल्द इलाज की मिन्नतें करता हुआ एक अजनबीबहुत देर तक डॉक्टरों और नर्सों के बीच फुटबॉल बना हुआ था। बड़ी मुश्किल से कागजी कार्यवाही करने के बादविवेक को ऑपरेशन-थियेटर के अंदर ले जाया गया।  अजनबी अपना दो बोतल खून भी दे चुका था। एक-दो घंटे में ऑपरेशन खत्म हुआ तो विवेक को वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया।  अजनबी लगातार विवेक की खिदमत में लगा हुआ था।
तभी विवेक के बदहवास माता-पिता वार्ड में दाखिल हुए। विवेक को देखते ही माँ तो बेहोश हो गयी अजनबी पानी लेने बाहर चला गया।
विवेक के माथे पर हाथ फेरते हुए काँपती आवाज में पिता ने पूछा- "कैसे हुआमुझे लगा, तू दोस्त के यहाँ देर रात हो जाने से रुक गया होगा।" 
"पापा! मैं तो रात...ग्यारह बजे ही ..आह..मुकेश के घर से चल दिया था..उह.. अह ह..लेकिन रास्ते में...!"
पत्नी की तरफ देखने के बाद पिता ने विवेक से फिर कहा- "चहलकदमी करती हुई तेरी माँ चिल्ला रही थी कि 'जन्मदिनइतनी देर तक कोई मनाता है क्या भला'! शाम को तेरा फोन भी बंद आ रहा था!"
"आराम करने दो! बाद में पूछताछ कर लेनामेरे बच्चे को कितनी तकलीफ ..!" कहते हुए वह फिर बेहोश-सी हो गयी।
"एक सहृदय भले आदमी की नजर...उहमुझपर सुबह पड़ीतो वह मुझे अस्पताल ले आये, आह..। ... पापा! रातभर लोगों से भीख मांगकर ऊहंss निराश हो गया था मैं तो..और मोबाइल की बैटरी भी...।" किसी तरह विवेक ने टूटे-फूटे शब्दों में पिता से अपनी व्यथा बयान की।
'सहृदयशब्द अंदर आते हुए अजनबी के कानों में गयातो वह बिलबिला पड़ा। जैसे उसके सूखे हुए घाव को किसी ने चाकू से कुरेद दिया हो।
अजनबी खुद से ही बुदबुदाया- "चार साल पहले मेरी सहृदयता कहाँ खोई थी! सड़क किनारे खड़ी भीड़ की आती आवाजें-चीखें अनसुनी करके निकल गया था ड्यूटी पर अपने। दो घण्टे बाद ही फोन पर तूफान की खबर मिली थी।" 
सहसा अपने सिर को झटक के वर्तमान में लौटकर अजनबी बोला- "बेटा! मैं सहृदय व्यक्ति नहीं हूँबनने का ढोंग कर रहा हूँ। यदि मैं सहृदय व्यक्ति होता तो मेरा बेटा जिंदा होता।" चुप होते ही आँसू अपने आप ढुलक गएजिसे अजनबी ने रोकने की कोई कोशिश नहीं की।
सविता मिश्रा 'अक्षजा'