‘भाषा एवं संस्कृति’ विषय पर संगीत नाटक अकादेमी में संगोष्ठी

 


'देश की आज़ादी के 70 साल बाद भी हम हिन्दी को कामकाज की भाषा नहीं बना सके। यह बड़े दुख की बात है। कतिपय कारणों से कामकाज में अँग्रेज़ी को महत्व दिया जाता रहा, जबकि अपनी भाषा को प्रश्रय दिए बिना अपनी संस्कृति को अक्षुण्ण रखना सम्भव नहीं है।' संगीत नाटक अकादेमी में 25 सितंबर 2019 को आयोजित 'भाषा एवं संस्कृति' विषय पर आयोजित संगोष्ठी में अपनी बात रखते हुए साहित्य अकादेमी की पत्रिका के सम्पादक श्री बृजेन्द्र त्रिपाठी ने कहा कि 'भाषा और संस्कृति दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और एक की अनदेखी कर दूसरे के संरक्षण की बात नहीं की जा सकती।' उन्होंने कहा कि 'दुनिया में तकरीबन 6000 भषाएँ बोली जाती हैं, जिसमें से अकेले भारत में कुल 1652 भाषाएँ बोली जाती हैं। हर एक भाषा एक अलग संस्कृति की द्योतक है। जब एक भाषा विलुप्त होती है तो उसके साथ एक संस्कृति का भी लोप होता है। भारत में भाषाई और सांस्कृतिक विविधता है, किन्तु इन तमाम भाषाओं और संस्कृतियों के बीच बहुत से योजक तत्व विद्यमान हैं जो अंततः भारतीय भाषा और संस्कृति को एक इकाई के रूप में स्थापित करते हैं। बल्कि यह कहना अधिक युक्तियुक्त होगा कि भारतीय संस्कृति विविध संस्कृतियों का समुच्चय है।' उन्होंने इस बात पर बल दिया कि संस्कृति अंतःकरण की चीज़ है और इसको अभिव्यक्त करने का माध्यम भाषा और संस्कार हैं। 


भाषा में ही संस्कृति विकसित होती है और दोनों को अलग नहीं किया जा सकता। इस अवसर पर उन्होंने गांधी की दृष्टि के आलोक में कहा कि 'गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन के लिए जिन विचारों को अपना शस्त्र बनाया, वह वैदिक एवं श्रवण संस्कृति से लिए गए थे और उन्हें वैष्णव परम्परा से जोड़ कर उन्होंने जन-सामान्य को संगठित किया और अँग्रेजी सरकार से संघर्ष किया। इस आंदोलन के साथ समांतर रूप से उन्होंने हिन्दी को भी जोड़ा और इसे राष्ट्रभाषा के रूप में प्रचारित-प्रसारित करने का कार्य किया। उनके इस कार्य में तत्कालीन बड़े समाजसेवियों और स्वतंत्रतासेनानियों ने भी अपनाया और बढाया।' श्री त्रिपाठी ने कहा कि हिन्दी को जब तक हम अपने कामकाज की भाषा नहीं बनाते, तब तक गांधी का स्वप्न अधूरा ही रहेगा। वैश्वीकरण के इस युग में हमारी तमाम भारतीय भाषाओं पर ख़तरा है और इस ख़तरे से अपनी भाषा और संस्कृति को बचाना हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती है। हम बाज़ार द्वारा आरोपित कृत्रिम संस्कृति में जी रहे हैं, जबकि हमारी स्थानीय संस्कृति और भाषा दोनों विलुप्ति की दिशा में अग्रसर हैं। संस्कृतियाँ हों या भाषाएँ—दोनों युगों के श्रम से बनती हैं। संस्कृतियाँ जड़ नहीं होतीं, वह समय सापेक्ष होती हैं और स्वयं को पुनर्नवा बनाती रहती हैं।


केन्द्रीय संस्कृति मंत्रालय के निदेशक (राजभाषा) श्री वेद प्रकाश गौड़ ने श्री त्रिपाठी की बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि 'दुनिया तेज़ी से बदल रही है, ऐसे समय में सांस्कृतिक परम्पराओं तथा आधुनिकता में सामंजस्य बनाना ज़रूरी है। भारतीय भाषा हो या संस्कृति, दोनों की निर्मिति की प्रक्रिया बड़ी ही श्रमसाध्य रही है और हमारे विद्वान मनीषियों और आध्यात्मिक व्यक्तित्वों ने जप-तप आधारित चिंतन-मनन की मदद से इनको निर्मित किया है, अतः इनको बचाना और बढ़ाना हमारा सांस्कृतिक दायित्व है। भारतीय संस्कृति न तो जड़ है और न ही एकांगी है, बल्कि यह शतदल कमल जैसी संरचना वाली है, जिसमें विविध भाषा-संस्कृतियाँ अपनी स्वतंत्र इयत्ता के साथ-साथ संयुक्त रूप से भारतीय संस्कृति का निर्माण करती हैं। विविध क्षेत्रों में स्थानीय भाषा/बोली का चलन है, यह हिन्दी के विरोधी तत्त्व नहीं, वरन उसके विविध आयाम हैं। यह हिन्दी भाषा और संस्कृति का सबसे सबल पक्ष है। इसको लेकर किसी के भी मन में कोई शंका नहीं होनी चाहिए।'


इसके बाद संगीत नाटक अकादेमी की सचिव डॉ. ऋतास्वामी चौधरी ने दोनों वक्ताओं का धन्यवाद करते हुए कहा कि 'भाषा अंततः हमारी संस्कृति की ही परिचायक है क्योंकि अभिव्यक्ति का माध्यम यही है। संगीत हो, नाटक हो, नृत्य हो या कोई भी अन्य कला-विधा—सभी को साहित्य की आवश्यकता होती है और साहित्य सृजन का माध्यम भाषा है। सांस्कृतिक बदलाव का असर भाषा पर भी पड़ता है। क्योंकि ऐसे बहुत से शब्द हैं, जो विशिष्ट सांस्कृतिक परिवेश की पहचान होते हैं। उन शब्दों को सुनकर ही हम अंदाज़ा लगा लेते हैं कि वक्ता किस सांस्कृतिक परिवेश से आया है।' डॉ. चौधरी ने भाषा और संगीत के सम्बंधों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि ध्रुवपद तथा ख़्याल दोनों शास्त्रीय संगीत के ही अंग हैं किन्तु दोनों के भाषा संस्कार अलग हैं। जहाँ ध्रुवपद की भाषा आध्यात्मिकता और ईश-भक्ति से ओतप्रोत है, वहीं ख़्याल गायिकी की भाषा में श्रृंगारिकता का प्रधान्य है। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि 'भाषा एवं संस्कृति के प्रति कर्तव्यनिष्ठा के साथ व्यक्तिक प्रयास आवश्यक हैं। इसके अभाव में हम न तो संस्कृति को अक्षुण्ण रख सकते हैं और न ही अपनी भाषा को बचा सकते हैं। हमें अँग्रेज़ी और अँग्रेज़ियत के मिथ्या गर्वबोध से ऊपर उठना होगा और अपनी भाषा, अपनी संस्कृति के प्रति जो दायित्व हमें हमारे पुरखों ने सौंपा है, उसे पूरा करना होगा और यह कार्य हमें अपने-अपने घरों से ही शुरू करना होगा।'


संगोष्ठी का संचालन कर रहे श्री तेजस्वरूप त्रिवेदी ने कहा कि निश्चित रूप से भाषा एवं संस्कृति अंतर्गुम्फित हैं और इन्हें विलग कर नहीं देखा जा सकता। इस प्रकार यदि हम एक की अनदेखी करते हैं तो दूसरे के प्रति भी अन्याय करते हैं। किसी भी देश की पहचान उसकी भाषा और संस्कृति से ही होती है, अतः यदि हम हिन्दी भाषा और भारतीय संस्कृति को संरक्षित नहीं करेंगे, अपने जीवन के क्रियाव्यापारों में उसको नहीं उतारेंगे तो निश्चित रूप से हम अपनी पहचान को ही धूमिल करेंगे। उन्होंने संगोष्ठी में आने के लिए सभी श्रोताओं को धन्यवाद किया। संगोष्ठी में श्रोताओं की उपस्थिति उत्साहजनक रही।